मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान जिनको हम सब लोग मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते है इस मशहूर शायर का जन्म 27 दिसंबर 1797 15 फरबरी 1889 में हुआ ग़ालिब एक इंडियन शायर थे
ग़ालिब ने 11 साल की उम्र में कविता रचना शुरू कर दी थी। उनकी पहली भाषा उर्दू थी , लेकिन फ़ारसी और तुर्की भाषा भी बोली जाती थी। उन्होंने छोटी उम्र में फ़ारसी और अरबी में शिक्षा प्राप्त की । ग़ालिब की अवधि के दौरान, "हिंदी" और उर्दू शब्द पर्यायवाची थे ( हिंदी-उर्दू विवाद देखें )। ग़ालिब ने पर्सो-अरबी लिपि में लिखा था, जिसका उपयोग आधुनिक उर्दू लिखने के लिए किया जाता है, लेकिन अक्सर उनकी भाषा को "हिंदी" कहा जाता है; का शीर्षक Ode-e-Hindi ("हिंदी का इत्र") था।
जब ग़ालिब अपने शुरुआती किशोरावस्था में थे, [ समय सीमा? ] ईरान से एक नया परिवर्तित मुस्लिम पर्यटक (अब्दुस समद, जिसे मूल रूप से होर्मुज़द, एक जोरास्ट्रियन नाम दिया गया था) आगरा आया था। [ किसके अनुसार? ] वह दो साल तक ग़ालिब के घर पर रहे और उन्हें फ़ारसी, अरबी, दर्शन और तर्क सिखाया।
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दोस्तो इस आर्टिकल में हम आपके मन पसंद शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की heart touching mirza ghalib shayari in hindi शायरी लेकर आए है आप के लिए कुछ खास शायरी लेकर आए है इनमें से कुछ शायरी ऐसी है को आपको गूगल में भी बहुत मुश्किल से मिलेंगी तो आप इस आर्टिकल को पूरा पढ़े कियू की आप को इसमें बहुत अच्छी शायरी मिलेंगी तो अब देर किस बात की आप इस आर्टिकल को पूरा पढ़े।
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
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मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां।
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं।
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं।
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है।
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
Mirza ghalib shayari
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'।
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा।
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन।
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब।
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए।
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।।
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।।
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ।
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई।
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।।
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'।
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।।
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है।
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
कितना खौफ होता है शाम के अंधेरों में,
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते.,
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’,
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं.,
मरना चाहे तो मर नहीं सकते,
तुम भी जीना मुहाल करते हो.,
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए.,
हुस्न ग़मज़े की कशाकश से छूटा मेरे बाद,
बारे आराम से हैं एहले-जफ़ा मेरे बाद
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.,
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है.
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है.,
Mirza ghalib shayari on ishq
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह,
इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना.,
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम,
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे.,
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब,
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया.,
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना.,
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से.
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं.,
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या,
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए.,
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.,
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना.,
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक.,
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है,
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने.,
इश्क का होना भी लाजमी है शायरी के लिये,
कलम लिखती तो दफ्तर का बाबू भी ग़ालिब होता
तुम मुझे कभी दिल, कभी आँखों से पुकारो ग़ालिब,
ये होठो का तकलुफ्फ़ तो ज़माने के लिए है.,
मेरे बारे में कोई राय मत बनाना ग़ालिब,
मेरा वक्त भी बदलेगा तेरी राय भी.,
अफ़साना आधा छोड़ के सिरहाने रख लिया,
ख़्वाहिश का वर्क़ मोड़ के सिरहाने रख लिया
वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी,
उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया !!
अब अगले मौसमों में यही काम आएगा,
कुछ रोज़ दर्द ओढ़ के सिरहाने रख लिया !!
भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी,
बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया !!
कुछ लम्हे हमने ख़र्च किए थे मिले नही,
सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया !!
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
हर रंज में ख़ुशी की थी उम्मीद बरक़रार,
तुम मुस्कुरा दिए मेरे ज़माने बन गये
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की,
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की !!
हम महव-ए-चश्म-ए-रंगीं-ए-जवाब* हुए हैं जबसे,
शौक़-ए-दीदार हुआ जाता है हर सवाल का रंग !!
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर,
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो
नसीहत के कुतुब-ख़ाने* यूँ तो दुनिया में भरे हैं,
ठोकरें खा के ही अक्सर बंदे को अक़्ल आई है !!
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में !!
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार,
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे !!
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन,
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए !!
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
चाहें ख़ाक में मिला भी दे किसी याद सा भुला भी दे,
महकेंगे हसरतों के नक़्श* हो हो कर पाएमाल भी
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं,
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर !!
जो कुछ है महव-ए-शोख़ी-ए-अबरू-ए-यार है,
आँखों को रख के ताक़ पे देखा करे कोई
‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइ’ज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!
उम्मीद करता हूं में आप सब को मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी heart touching mirza ghalib shayari in hindi ये शायरी काफी जायदा पसंद आयी होंगी अगर आपको ये आर्टिकल पसंद आया है तो इसको अपने दोस्तो के सोशल मीडिया पर जरूर शेर करे